Sep 24, 2024, 13:14 IST

25 सितम्बर, जयंती विशेष

25 सितम्बर, जयंती विशेष

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भारत के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले पं दीनदयाल उपाध्याय कुशल संगठक, बौद्धिक चिंतक और भारत निर्माण के स्वप्नदृष्टा के रूप में आज तलक कालजयी हैं। माता रामप्यारी और पिता भगवती प्रसाद उपाध्याय के घर 25 सितम्बर 1916 को मथुरा जिले के नगला चन्द्रभान ग्राम में जन्मे पं दीनदयाल उपाध्याय हम सबके प्रेरणास्रोत और मातृभूमि के सच्चे उपासक थे। उन्होंने व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र के विकास का समूचा दर्शन दिया। अपनी संस्कृति, संस्कारों, परंपराओं, जीवन मूल्यों के आधार पर देश निर्माण का विचार दिया। विश्व के विकास और कल्याण की सभी संभावनाएं उनके द्वारा दिए गए एकात्म मानव दर्शन में है। जिसकी प्रासंगिकता मानकर सारा विश्व इस मानवीय सिद्धांत पर शोध कर रहा है। ताकि एक मामूली से कद काठी के व्यक्ति ने इतना मार्मिक और सारगर्भित विमर्श समय रहते कैसा उद्वेलित कर दिया।

एकात्म मानववाद का दर्शन

पं दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानव दर्शन भारतीय चिंतन की दो अवधारणा पर आधारित है। पहली वसुधैव कुटुंबकम् का सिद्धांत और दूसरी चार पुरुषार्थ। उन्होंने शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा की आवश्यकता की पूर्ति के लिए उसके विकास के लिए चार पुरुषार्थ की अवधारणा को स्पष्ट किया। उनका मानना था कि व्यक्ति में प्रतिभा भी है और उसकी आवश्यकताएं भी है लेकिन उसका मन व्यापक होता है। वह भ्रमित हो सकता है। मनुष्य सकारात्मक दिशा में बड़े इसके लिए मन का संतुलन और अनुशासन जरूरी है। यह बुद्धि और विवेक से ही संभव है। इसके लिए चार पुरुषार्थ आवश्यक है इनमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का समावेश है। यदि चार पुरुषार्थ की मर्यादा में व्यक्ति को उसके विकास के सभी अवसर प्रदान किए जाए तो संसार इस श्रेष्ठ स्वरूप को प्राप्त कर सकता है इसकी कल्पना वेदों में है। यह पूर्ण यानी एकात्म मानव की कल्पना है जिसे पंडित दीनदयाल जी ने एकात्म मानववाद दर्शन के रूप में दिया। जो सारे जगत में अलौकिक है।

मानवधर्मी दीनबंधु दीनदयाल

पंडित जी के अनछूए जीवन प्रेरक प्रसंग प्रेरणापुंज हैं। सतुत्य, किशोरावस्था में एक बार सब्जी बाजार गए और सब्जी बेचने वाली वृद्धा को चवन्नी का भुगतान कर दिया। घर लौटते समय उन्होंने जेब टटोली, तो देखा कि वह वृद्धा को खूंटी चवन्नी दे आए हैं। उनका मन इतना दुखी और द्रवित हो गया कि वह दौड़ते हुए उस वृद्धा के पास गए और उसे क्षमा प्रार्थना के साथ खूंटी चवन्नी वापस लेकर खरी चवन्नी दे दी। क्रम में मध्यप्रदेश जाने के लिए पं दीनदयाल जी दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर खड़ी गाड़ी के थर्ड क्लास के डिब्बे में बैठ चुके थे। गाड़ी जाने में अभी आधा घंटा शेष था जिसके कारण डिब्बे में बहुत कम यात्री बैठे थे। इसी समय दो औरतें डिब्बे में आई और भीख मांगने लगी। पुलिस के एक सिपाही ने उन्हें देखा और उन्हें गाली देते हुए मारने लगा। पंडित जी कुछ समय तक इस दृश्य को देखते रहे लेकिन अचानक उठ कर उन्होंने पुलिस के सिपाही को पीटने से रोकने का प्रयत्न किया। पुलिस के सिपाही ने अभद्रता से कहा- “यह औरतें चोर हैं और यह तुम्हें तुम्हें परेशानी में डाल सकती हैं। जाओ और अपनी सीट पर बैठो यह मेरा काम है और उसे करने में दखल मत दो।” पंडित जी यह वाक्य सुनते ही क्रोधित हो उठे। शायद जीवन में पहली और अंतिम बार वे इस क्रोधावेश में दिखे थे। उन्होंने पुलिस के सिपाही का हाथ पकड़ते हुए कहा- मैं देखता हूं कि तुम उन्हें कैसे मारते हो। अदालत उन्हें उनके और सामाजिक कार्यों के लिए दंड दे सकती है लेकिन एक स्त्री के साथ अभद्र व्यवहार को देखना मेरे लिए असहनीय है। पुलिस के सिपाही ने अपनी ड्यूटी को माना और क्षमा की प्रार्थना की। ऐसे एक अबला की रक्षा करने वाले मानवस्पर्शी, संवेदनशील मानवधर्मी थे दीनबंधु दीनदयाल।

देश को समर्पित जीवन 

आज राष्ट्रवाद का जो स्वरूप दिखाई दे रहा है उसके नींव डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने पंडित जी के साथ मिलकर दशकों पहले रखी थी। उन्होंने अपना जीवन देश को समर्पित कर दिया। कार्यकुशलता समर्पण को देखकर डॉक्टर मुखर्जी ने कहा था कि यदि मुझे दो दीनदयाल मिल जाते तो मैं पूरे हिंदुस्तान को बदल देता। वह अंतिम व्यक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति का विकास चाहते थे। एक चौपाई बोलते थे परहिस सरिस धर्म नाहिं भाई... दूसरों की भलाई करने से बड़ा कोई धर्म नहीं होता। पंडित जी ने कहा था हमें सबके लिए काम करना है। जो गरीब है, सबसे पीछे और सबसे नीचे है वह दरिद्र ही अपना भगवान है। उसकी सेवा ही भगवान की सेवा है। पंडित जी का इस भावना और विचार को क्रियान्वित करने आज मानव कल्याण की विविध योजनाएं चलाई जा रही है। पंडित जी के बताए गए मार्ग पर चलकर हम एक शक्तिशाली, गौरवशाली, वैभवशाली, शक्तिशाली और संपूर्ण भारत का निर्माण करेंगे। पथ प्रदर्शक, आदर्श नायक, राष्ट्र के महानिर्माता पं दीनदयाल उपाध्याय को एक बार पुनः नमन…! वीभत्स, साल 1978 की 10 फरवरी को दीनदयाल लखनऊ से पटना जा रहे थे। इसके लिए वे सियालदाह एक्सप्रेस में बैठे लेकिन 11 फरवरी को अलग सुबह तकरीबन 2 बजे, जब ट्रेन मुगलसराय स्टेशन पर पहुंची, तो वह ट्रेन में नहीं थे। स्टेशन के नजदीक ही उनका पार्थिव देह था।  व्यथा अंत्योदय और एकात्म मानववाद  के प्रणेता पं दीनदयाल उपाध्याय का महाप्रयाण आज भी एक रहस्यमय है?

25 सितम्बर, जयंती विशेष

 हेमेन्द्र क्षीरसागर, पत्रकार, लेखक