Feb 28, 2024, 18:31 IST

सौ रोगों की एक दवा,भगवद्भक्ति, प्रस्तुति के माध्यम से हम आपको भजन महिमा बतायेगें श्री राम चरित मानस में उत्तर कांड में गरुड़ जी श्री काग भुशुंडि जी से यह प्रश्न करते हैं।

सौ रोगों की एक दवा,भगवद्भक्ति, प्रस्तुति के माध्यम से हम आपको भजन महिमा बतायेगें श्री राम चरित मानस में उत्तर कांड में गरुड़ जी श्री काग भुशुंडि जी से यह प्रश्न करते हैं।

सौ रोगों की एक दवा,भगवद्भक्ति, प्रस्तुति के माध्यम से हम आपको भजन महिमा बतायेगें, ये भजन महिमा रामचरितमानस के उत्तरकांड में कागभुशुण्डिजी ने गरुड़जी को बताई थी!!!!!

रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी॥
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं॥

भावार्थ:-श्री रघुनाथजी की भक्ति संजीवनी जड़ी है। श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही अनुपान (दवा के साथ लिया जाने वाला मधु आदि) है। इस प्रकार का संयोग हो तो वे रोग भले ही नष्ट हो जाएँ, नहीं तो करोड़ों प्रयत्नों से भी नहीं जाते॥

* जानिअ तब मन बिरुज गोसाँई। जब उर बल बिराग अधिकाई॥
सुमति छुधा बाढ़इ नित नई। बिषय आस दुर्बलता गई॥

भावार्थ:-हे गोसाईं! मन को निरोग हुआ तब जानना चाहिए, जब हृदय में वैराग्य का बल बढ़ जाए, उत्तम बुद्धि रूपी भूख नित नई बढ़ती रहे और विषयों की आशा रूपी दुर्बलता मिट जाए॥

जीव का सच्चा स्वार्थ क्या है?
श्री राम चरित मानस में उत्तर कांड में गरुड़ जी श्री काग भुशुंडि जी से यह प्रश्न करते हैं।
काग भुशुंडि जी कहते हैं...


स्वारथ साँच जीव कहुँ एहा।
मन क्रम बचन राम पद नेहा।।

 

काग भुशुंडि जी ने कितनी सुंदर बात कही है कि... 
जीव के लिए सच्चा स्वार्थ यही है कि मन, वचन और कर्म से श्री राम जी के चरणों में प्रेम हो।

मित्रों मानस में कई स्थानों पर हमें स्वार्थ शब्द से प्रेरित चौपाइयां मिलती हैं जैसे....


सुर नर मुनि सब कर यह रीती ।
स्वारथ लागि करइ सब प्रीती ।।

असि सिख तुम्ह बिनु देइ न कोऊ।
मातु पिता स्वारथ रत ओऊ॥

स्वारथ मीत सकल जग माहीं।
सपनेहुँ प्रभु परमारथु नाहीं।।

 

इस प्रकार अनेक और भी चौपाईयां है।

 उपरोक्त चौपाइयों से यह सिद्ध होता है कि हर प्राणी स्वार्थ से बँधा हुआ है। मानो स्वार्थ जीवन का अभिन्न अंग है। जो शायद सहजता से छूट नहीं सकता।

काग भुशुंडि जी कहते हैं गरुड़ जी स्वार्थ बुरा नहीं है। बस स्वार्थ की दिशा बदलने की जरूरत है। किसी से लौकिक सुख, साधन, धन प्रेमादि के लिए स्वार्थ रखने से अच्छा है प्रभु के चरणों में प्रेम पाने के लिए स्वार्थी बना जाए क्योंकि यही सच्चा स्वार्थ है जो परमार्थ के पथ को प्रसस्त करता है।

प्रश्न यह उठता है कि स्वार्थ परमार्थ के पथ को प्रसस्त करता है इसका प्रमाण क्या है...
काग भुशुंडि जी कहते हैं...


स्वारथ साँच जीव कहुँ एहा।
मन क्रम बचन राम पद नेहा।।

 

अयोध्या कांड में लक्ष्मण जी निषाद राज गुह से कहते हैं...


होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा।
 तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥

सखा परम परमारथु एहू।
 मन क्रम बचन राम पद नेहू॥

अर्थात 
विवेक (विशिष्ट ग्यान) होने पर मोह (अग्यान) रूपी भ्रम भाग जाता है, तब (अज्ञान का नाश होने पर) श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम होता है। हे सखा! मन, वचन और कर्म से श्री रामजी के चरणों में प्रेम होना, यही सर्वश्रेष्ठ #परमार्थ (पुरुषार्थ) है॥

तो सारांश यह है कि जीव को स्वार्थ रत होकर भी श्री राम जी के चरणों में प्रेम करते रहना चाहिए। उनकी लीलाओं तथा गुण समूहों को प्रेम पूर्वक सुनते रहना चाहिए जिससे विवेक जागृत होकर मोह रूपी अग्यान का नाश हो जाए और स्वार्थ अपने ऊर्ध्व रुप परमार्थ को प्राप्त हो जाए।

प्रभु श्री राम जी स्वयं परमार्थ के हीं स्वरूप हैं।
जो जीव परमार्थ के पथ पर चलता है उसे प्रभु के स्वरूप का दर्शन नित्य प्राप्त होता है।दृष्टि बदल जाती है...
कैसे?

सीयराम मय सब जग जानी ।

वह सम्पूर्ण जगत को भगवत्स्वरूप सीताराम मय देखने लगता है। 
 
गोस्वामी जी कहते हैं..

राम ब्रह्म परमारथ रूपा।
 अबिगत अलख अनादि अनूपा॥

सकल बिकार रहित गतभेदा।
 कहि नित नेति निरूपहिं बेदा॥

 

श्री रामजी परमार्थस्वरूप (परमवस्तु) परब्रह्म हैं। वे अविगत (जानने में न आने वाले) अलख (स्थूल दृष्टि से देखने में न आने वाले), अनादि (आदिरहित), अनुपम (उपमारहित) सब विकारों से रहति और भेद शून्य हैं, वेद जिनका नित्य 'नेति-नेति' कहकर निरूपण करते हैं।
 

मसकहि करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन।
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन॥

 

प्रभु मच्छर को ब्रह्मा कर सकते हैं और ब्रह्मा को मच्छर से भी तुच्छ बना सकते हैं। ऐसा विचार कर चतुर पुरुष सब संदेह त्यागकर श्रीराम जी को ही भजते हैं।