गुरु शिष्य को परंपरा भारत देश में हजारों वर्षों से चली आ रही है। जहां गुरु का अपना एक महत्व है वहीं शिष्यों के भी कुछ कर्तव्य बताए गए हैं। जो कोई भी विद्यार्थी विद्या प्राप्ति की इच्छा से किसी गुरु के सानिद्ध्य में रहता हुआ नियम-अनुशासन का अनुकरण करके गुरु जनों की आज्ञाओं का पालन करता है और अनेक प्रकार की विद्याओं को प्राप्त करता है और जीवन को आदर्शमय बनता है, वास्तव में वह शिष्य कहलाने योग्य है ।
शिष्यो के कर्तव्य के बारे में अनेक प्रकार के धर्म-शास्त्रों में नीति-शास्त्रों, वेदों में भी निर्देश प्राप्त होते हैं। विद्यार्थी को गुरु जी के अनुशासन में रहते हुए गुरूजी का आज्ञाकारी होना चाहिये ।
गुरूजी के आज्ञा के विपरीत या गुरु जी के प्रति कोई अप्रिय आचरण कभी भी न करे। गुरु जी के प्रति सदा श्रद्धा भाव रखने वाला तथा अन्तर्मन से गुरु जी की सेवा करने वाला होना चाहिये। विद्यार्थी अपने जीवन को वेदानुकुल ही बनाने का प्रयत्न करे। अथर्ववेद का निर्देश है कि विद्यार्थी वेदों के आदेशों के अनुसार ही अपना जीवन व्यतीत करे। ऐसा कोई भी कार्य न करे जो कि वेदों में निषेध किया गया हो।
ऋग्वेद में बताया गया है कि “विश्वान देवान उषर्बुध..” अर्थात् विद्यार्थी का कर्तव्य है कि उस को प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में ही शय्यात्याग करना चाहिये। जो प्रातःकाल शीघ्र ही उठता है वह स्वस्थ, बलवान, दीर्घायु होता है। विद्यार्थी को चाहिए कि उसको कभी भी आलस्य, प्रमाद और वाचालता आदि से युक्त न होना चाहिये। उसको सदा संयमी और सदाचारी होना चाहिए।
ऋग्वेद का कथन है कि “तान् उशतो वि बोधय..।” अर्थात् जो व्यक्ति जिज्ञासु होते हैं और वेदादि का ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें ही शिक्षा देनी चाहिये । वेदों में कहा गया है “अप्नस्वती मम धीरस्तु ।” विद्यार्थी या शिष्य को कर्मठ होना आवश्यक है। शिष्य तीव्र बुद्धि वाला हो जिसकी बुद्धि जितनी तीव्र होती है वही ज्ञान का अधिकारी होता है, वही ज्ञान ग्रहण करने में समर्थ हो पाता है।